भारतीय न्याय संहिता की धारा 69 निरर्थक है
भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 69, विवाह के झूठे वादे पर आधारित यौन संबंधों को एक स्वतंत्र अपराध के रूप में परिभाषित करती है। यह प्रावधान, भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अधीन बलात्कार की परिभाषा में बिना किसी परिवर्तन के, एक पृथक अपराध को स्थापित करता है। जबकि बलात्कार की व्याख्या पहले से ही ‘भ्रांति की स्थिति में दी गई सहमति’ को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित करती है, धारा 69 की आवश्यकता विधिक, सामाजिक तथा संवैधानिक दृष्टि से संदिग्ध प्रतीत होती है।
इस धारा के अनुसार, यदि कोई पुरुष छलपूर्ण माध्यमों से या विवाह का झूठा वादा कर यौन संबंध स्थापित करता है, तो उसे दस वर्षों तक के कारावास तथा जुर्माने से दंडित किया जा सकता है। ‘छलपूर्ण माध्यम’ की परिभाषा में झूठा रोजगार, पदोन्नति, अथवा पहचान छिपाकर विवाह करना शामिल किया गया है। किंतु यह प्रावधान, पहले से लागू बलात्कार संबंधी कानूनी ढांचे के भीतर ही समाहित किया जा सकता था, जिससे दोहराव और अस्पष्टता से बचा जा सकता था।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 63 बलात्कार की परिभाषा प्रस्तुत करती है, जो पूर्ववर्ती भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के समान ही है। इसमें कहा गया है कि यदि सहमति ‘भ्रांति के कारण’ प्राप्त की गई हो, तो वह सहमति विधिसम्मत नहीं मानी जाएगी। यह स्थिति धारा 28 में भी स्पष्ट रूप से परिभाषित की गई है, जिसके अनुसार भय, मानसिक विकृति, नशे की अवस्था, अथवा भ्रांति के अधीन दी गई सहमति विधिसम्मत नहीं होती। इसलिए, विवाह के झूठे वादे के आधार पर यौन संबंध, बलात्कार की परिभाषा में पहले से ही सम्मिलित है।
इस पृष्ठभूमि में धारा 69 की पृथक उपस्थिति, बलात्कार जैसे गंभीर अपराध की विधिक संरचना को कमजोर करती है। यह बलात्कार के दायरे में आने वाले अपराध को कम दंडनीय अपराध के रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे अपराध की गंभीरता और पीड़िता की पीड़ा को न्यायिक रूप से कम करके आँका जाता है। यह प्रवृत्ति भारतीय विधिशास्त्र के न्याय, समानता और गरिमा के सिद्धांतों के प्रतिकूल है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि विवाह के झूठे वादे पर आधारित बलात्कार का आरोप तभी न्यायोचित है जब आरोपित व्यक्ति का प्रारंभ से ही विवाह का कोई वास्तविक इरादा न रहा हो। अनुराग सोनी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2019) में न्यायालय ने कहा कि यदि पुरुष ने पूरी गंभीरता से विवाह का वादा किया हो लेकिन बाद में परिस्थिति बदलने पर विवाह न कर पाया हो, तो यह बलात्कार नहीं माना जा सकता। यह सिद्धांत अपराध के उद्देश्यात्मक तत्व की आवश्यकता को पुष्ट करता है।
इसी प्रकार, राजनीश सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) में, न्यायालय ने एक दीर्घकालीन प्रेम संबंध जिसमें महिला स्वयं को आरोपी की पत्नी के रूप में प्रस्तुत करती रही थी, उसे सहमति से यौन संबंध मानते हुए, बलात्कार के आरोपों को खारिज कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि शारीरिक संबंध मात्र प्रेम या स्वेच्छा पर आधारित हों, और विवाह के झूठे वादे से उनका सीधा संबंध न हो, तो यह बलात्कार नहीं कहा जा सकता।
धारा 69 की संवैधानिक वैधता पर भी प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं। यह धारा बलात्कार की परिभाषा में संशोधन के बिना एक समानांतर अपराध को गढ़ती है, किंतु इसमें कोई ‘गैर-अभिभावी खंड’ (non-obstante clause) नहीं है, जो इसे धारा 63 से पृथक कानूनी अस्तित्व प्रदान करे। ऐसे में यह अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के उल्लंघन के रूप में देखी जा सकती है, क्योंकि यह समान अपराध के लिए भिन्न दंड का प्रावधान प्रस्तुत करती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि पुलिस प्रशासन द्वारा ऐसे मामलों में आरोप पत्र दायर करना, जबकि न्यायालयों ने स्पष्ट रूप से ऐसे आरोपों को विवेकपूर्वक निरस्त किया है, न्याय प्रणाली पर अनावश्यक भार डालता है। न्यायिक निर्देशों के आलोक में पुलिस को ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व प्राथमिक जाँच करनी चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि आरोप वास्तविक हैं या नहीं। यह कदम न्यायिक संसाधनों की बचत के साथ-साथ निर्दोष नागरिकों को अनावश्यक उत्पीड़न से भी बचा सकेगा।
धारा 69 की व्याख्या से यह भी प्रतीत होता है कि यह महिलाओं की स्वायत्तता और ‘बौद्धिक सहमति’ की अवधारणा को कम करके आँकती है। यह यह संकेत देती है कि महिलाएँ विवाह के वादे पर ही यौन संबंध बनाने का निर्णय ले सकती हैं, जिससे उनकी निर्णय क्षमता पर संदेह उत्पन्न होता है। यह परिप्रेक्ष्य भारतीय समाज में स्त्री की आत्मनिर्भरता और संवैधानिक गरिमा के प्रतिकूल है।
यदि विधायिका वास्तव में ऐसे मामलों को स्पष्ट परिभाषा देना चाहती थी, तो उसे बलात्कार की परिभाषा में संशोधन करते हुए ‘झूठे विवाह वादे’ को विशेष रूप से एक अपवाद या स्पष्ट तत्व के रूप में सम्मिलित करना चाहिए था। परन्तु धारा 63 को यथावत रखते हुए एक स्वतंत्र धारा के रूप में धारा 69 का समावेश विधिक संरचना को असंतुलित करता है, और इस कारण इसकी स्थायित्वता पर गहरे प्रश्न उठते हैं।
अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि धारा 69 न केवल विधिक पुनरावृत्ति है, बल्कि यह बलात्कार कानूनों की दार्शनिक व संरचनात्मक संहति को भी खंडित करती है। यह सामाजिक-न्यायिक यथार्थ को नज़रअंदाज़ करती है और संवैधानिकता की दृष्टि से भी असुरक्षित है। इसके स्थान पर न्यायसंगत समाधान वही होगा, जो पहले से स्थापित न्यायिक मापदंडों और बलात्कार की परिभाषा के भीतर ही मामलों का निराकरण सुनिश्चित करे।