भारत और चीन संबंधों की 75वीं वर्षगांठ
भारत और चीन के बीच राजनयिक संबंधों के 75 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर यह न केवल एक ऐतिहासिक पड़ाव है, बल्कि वैश्विक भू-राजनीतिक पुनर्रचना के बीच एक रणनीतिक क्षण भी है। एक ओर जहां यह संबंध एशियाई एकता के आदर्श पर आधारित था, वहीं अब यह रणनीतिक प्रतिस्पर्धा, सीमा विवाद और विश्वासहीनता से ग्रस्त है। फिर भी यह द्विपक्षीय संबंध संभावनाओं से युक्त है—सहयोग, आर्थिक जुड़ाव और क्षेत्रीय स्थिरता हेतु साझी जिम्मेदारी का मंच।
भारत की विदेश नीति पर चीन के प्रभाव को अब किसी एक आयाम से नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। व्यापार, रक्षा और अवसंरचना विकास से लेकर कूटनीति तक हर निर्णय ‘चीन दृष्टिकोण’ से प्रभावित होता है। सीमा पर शक्ति संतुलन और आंतरिक संप्रभुता की रक्षा के साथ-साथ हमें प्रतिस्पर्धा और संवाद को संतुलित रूप में साधने की आवश्यकता है। यह रणनीति भावनाओं से नहीं, गहन विवेक से संचालित होनी चाहिए।
1962 के युद्ध और 2020 के गलवान संघर्ष ने सीमा विवाद को केवल सैन्य ही नहीं, बल्कि जन मानस की चेतना का विषय बना दिया है। पूर्वी लद्दाख में स्थायी तैनाती और दोनों देशों द्वारा बुनियादी ढांचे का सुदृढ़ीकरण यह दर्शाता है कि सीमा तनाव अब दीर्घकालिक वास्तविकता बन चुका है। यह परिदृश्य दर्शाता है कि हमें न केवल सैनिक तैयारी बढ़ानी है, बल्कि कूटनीतिक विकल्पों को भी सुदृढ़ बनाना है जिससे अनावश्यक सैन्य संघर्ष टाला जा सके।
आर्थिक मोर्चे पर भारत-चीन संबंध एक द्वैधता प्रस्तुत करते हैं। एक ओर 2024-25 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा $100 अरब के करीब रहा, तो दूसरी ओर चीन हमारे प्रमुख व्यापार साझेदारों में से एक है। फार्मा और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में चीनी आयात पर हमारी निर्भरता ‘सीमा पर प्रतिरोध, बाजार में निर्भरता’ की विडंबना को उजागर करती है। इसलिए पूर्ण ‘डिकप्लिंग’ अव्यवहारिक और अल्पकाल में अलाभकारी है।
इस जटिलता के बीच भारत ने एक नई रणनीति अपनाई है, जिसे हम ‘प्रतिस्पर्धात्मक सह-अस्तित्व’ कह सकते हैं। एक ओर भारत क्वाड जैसे मंचों पर लोकतांत्रिक साझेदारों के साथ मुक्त और समावेशी इंडो-पैसिफिक की पैरोकारी करता है, तो दूसरी ओर ब्रिक्स और एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों पर चीन के साथ संवाद बनाए रखता है। यह दोहरे स्तर की विदेश नीति भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का परिचायक है जो प्रतिकूलताओं में भी अवसर खोजती है।
दक्षिण एशिया में चीन की उपस्थिति ने भारत की पारंपरिक भूमिका को चुनौती दी है। श्रीलंका में हम्बनटोटा, नेपाल में पोखरा हवाई अड्डा और मालदीव में अधोसंरचना ऋण जैसे उदाहरण यह दिखाते हैं कि चीन अपनी ‘चेकबुक कूटनीति’ से भारत के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ कर रहा है। भारत ने प्रतिक्रिया स्वरूप आपदा सहायता, रक्षा सहयोग और संपर्क परियोजनाओं द्वारा भूमिका निभाई है, परंतु अब उसे प्रतिक्रियाशीलता से आगे बढ़कर पूर्व-नियोजित रणनीतिक जुड़ाव अपनाना होगा।
चीन द्वारा भारत के पूर्वोत्तर को ‘स्थलबद्ध’ कहे जाने जैसी टिप्पणियाँ क्षेत्रीय कूटनीति में नैरेटिव युद्ध का संकेत देती हैं। यह आवश्यक है कि भारत बुनियादी ढांचे में अंतर को पाटे, क्षेत्रीय साझेदारों के साथ विश्वास बहाल करे और एक अधिक उत्तरदायी एवं विश्वसनीय भागीदार के रूप में स्वयं को स्थापित करे। प्रभाव का नया मानदंड केवल सड़कें या बंदरगाह नहीं, बल्कि साझेदारी की संवेदनशीलता है।
अमेरिकी राजनीति में ट्रंप की वापसी ने वैश्विक बहुपक्षवाद को चुनौती दी है और अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता को और तीव्र किया है। ऐसे में भारत पर वाशिंगटन के निकट जाने का दबाव बढ़ सकता है, विशेषकर रक्षा सहयोग और समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में। फिर भी, भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को अक्षुण्ण रखते हुए इस असंतुलन का संतुलन साधना होगा। भारत किसी गुटबंदी का हिस्सा नहीं, बल्कि स्वतंत्र ध्रुव के रूप में उभरे।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मार्च 2025 में दिए गए वक्तव्य ने भारत-चीन संबंधों में एक नई परिभाषा का संकेत दिया। उन्होंने दोनों देशों की सांस्कृतिक सहजीवन की बात कर संवाद और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्राथमिकता दी। यह बयान कूटनीतिक स्तर पर बीजिंग के लिए संवाद हेतु संकेत, वाशिंगटन के लिए भारत की स्वतंत्र निर्णय क्षमता का प्रमाण और देशवासियों के लिए नेतृत्व की स्थिरता का प्रतीक था।
हाल ही में दोनों देशों के बीच कुछ प्रतीकात्मक परंतु महत्त्वपूर्ण कूटनीतिक घटनाएँ हुई हैं—जैसे कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः आरंभ करने पर चर्चा, जल आंकड़ों के साझा करने हेतु विशेषज्ञ स्तर की बैठक की योजना और एलएसी पर सत्यापन गश्त की बहाली। यह सब दर्शाता है कि दोनों देश एक सीमित सुधार की दिशा में सोच रहे हैं, भले ही यह भ्रमरहित ‘थॉ’ ही क्यों न हो।
भारत की चीन नीति को चार स्तंभों पर आधारित होना चाहिए—सैन्य तत्परता, आर्थिक विविधता, कूटनीतिक जुड़ाव और नैरेटिव नियंत्रण। हमें उकसावे के बिना प्रतिरोध, निर्भरता के बिना व्यापार और दशकों की सोच के साथ रणनीतिक संप्रेषण करना होगा। यही नीति भारत को विश्व मंच पर नेतृत्व प्रदान कर सकती है, जहां चीन एक प्रतिद्वंद्वी ही नहीं, आत्ममूल्यांकन का दर्पण भी है। इसी दर्पण में भारत को अवसर का प्रतिबिंब देखना होगा।