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हिन्दी को अनिवार्य बनाए बिना भी इसे बढ़ावा दिया जा सकता है

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के संदर्भ में महाराष्ट्र सरकार द्वारा हिंदी को कक्षा 1 से तृतीय भाषा के रूप में अनिवार्य बनाने का निर्णय भारतीय संघवाद, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक स्वायत्तता के मध्य गहरे अंतर्विरोध को उद्घाटित करता है। यह नीति न केवल शैक्षणिक ढांचे में केंद्रीय नियंत्रण की प्रवृत्ति को प्रकट करती है, बल्कि भाषाई एकरूपता थोपने के विरुद्ध संवैधानिक सहिष्णुता की कसौटी पर भी खड़ी होती है। यह प्रश्न इस समय भारत के संघात्मक ढांचे और भाषाई बहुलता के बीच संतुलन की आवश्यकता को अत्यंत गंभीरता से रेखांकित करता है।

यह तथ्य असंदिग्ध है कि हिंदी भारत की एक प्रमुख संपर्क भाषा है, किंतु इसे बाल्यावस्था में अनिवार्य बनाना एक शिक्षाशास्त्रीय चुनौती उत्पन्न करता है। भाषाई अधिग्रहण के सिद्धांतों के अनुसार, आरंभिक शिक्षा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में होने से संज्ञानात्मक विकास अधिक प्रभावशाली होता है। ऐसे में हिंदी को कक्षा 1 से अनिवार्य करना बालकों के लिए भाषाई भार बढ़ाता है और मराठी जैसी स्थानीय भाषाओं की संप्रेषणीय क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जिससे क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान कमजोर होती है।

महाराष्ट्र जैसे राज्य में जहां क्षेत्रीय अस्मिता, मराठी भाषा और स्थानीय रोजगार का गहरा संबंध रहा है, वहां हिंदी का प्रारंभिक अनिवार्यीकरण स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक संतुलन को चुनौती देता है। शिवसेना की राजनीतिक धारा ने मराठी मानुष की अवधारणा को जनसंवेदना से जोड़कर एक विशिष्ट राजनीतिक चेतना का निर्माण किया है। हिंदी को अनिवार्य बनाना इस स्थापित सामाजिक अनुबंध को बाधित कर सकता है, जिससे राजनीतिक असंतोष एवं भाषाई ध्रुवीकरण की संभावना प्रबल हो जाती है।

यह समझना आवश्यक है कि भारत का संविधान बहुभाषिकता को न केवल मान्यता देता है, बल्कि उसकी रक्षा भी करता है। अनुच्छेद 29 और 30 भाषाई तथा सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थानों की स्थापना और संरक्षण का अधिकार देते हैं। अनुच्छेद 350A यह सुनिश्चित करता है कि राज्यों में स्थानीय भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था हो। अतः हिंदी को प्रारंभिक शिक्षा में अनिवार्य बनाना इन संवैधानिक व्यवस्थाओं के मूल उद्देश्य से विचलन माना जा सकता है।

राज्य सरकार द्वारा यह कदम ऐसे समय उठाया गया है जब केंद्र सरकार की समरूपता की नीति पहले ही तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में राजनीतिक प्रतिरोध को जन्म दे चुकी है। महाराष्ट्र, जो परंपरागत रूप से हिंदी के प्रति तटस्थ रहा है, वहां इस नई नीति के माध्यम से केंद्र की भाषाई केंद्रीयता के एजेंडे को आगे बढ़ाने की आलोचना हो रही है। यह स्थिति भारतीय संघवाद के मूल स्वरूप—सहभागिता और विविधता—की आत्मा के विरुद्ध मानी जा सकती है।

व्यावहारिक स्तर पर भी यह निर्णय शिक्षक नियुक्ति, प्रशिक्षण और भाषा संसाधनों की अनुपलब्धता जैसी गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न करता है। यदि हजारों स्कूलों में कक्षा 1 से हिंदी पढ़ाई जानी है, तो इसके लिए योग्य शिक्षकों की भारी आवश्यकता होगी, जिनकी भर्ती और प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त संस्थागत क्षमता और वित्तीय संसाधन अनिवार्य हैं। इस संदर्भ में नीति निर्माताओं को यह भी ध्यान देना होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता भाषाई थोप से नहीं, बल्कि पद्धतिगत लचीलापन और बालक की समझ के अनुकूल शिक्षा से सुनिश्चित होती है।

भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक स्मृति की वाहक भी होती है। भारत में भाषा आंदोलन—चाहे वह तमिलनाडु में 1965 का हो या असम में 1980 के दशक का—ने यह स्पष्ट किया है कि जब किसी भी भाषा को अनिवार्य रूप से थोपा जाता है, तो वह न केवल सांस्कृतिक असंतोष को जन्म देता है, बल्कि राष्ट्र की एकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। अतः हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयास संवेदनशील, लोकतांत्रिक और संवादात्मक होने चाहिए, न कि आदेशात्मक।

आज शिक्षा का परिदृश्य कृत्रिम बुद्धिमत्ता, बहुभाषिक अधिगम और वैश्विक प्रतिस्पर्धा जैसे तत्वों से प्रभावित है। ऐसे में आवश्यकता है कि भाषाई नीतियाँ प्रतिस्पर्धा से अधिक समावेशन पर केंद्रित हों। प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा आधारित शिक्षा को सशक्त बनाते हुए छात्रों को अन्य भाषाओं के प्रति स्वैच्छिक अभिरुचि विकसित करने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। इससे भाषाई सामंजस्य और राष्ट्रीय एकता दोनों को मजबूती मिलेगी।

नीति-निर्माताओं के लिए यह समय आत्ममंथन का है। भाषा जैसी संवेदनशील सांस्कृतिक इकाई को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करना अल्पकालिक हितों को साधने का प्रयास हो सकता है, किंतु यह दीर्घकालीन सामाजिक सौहार्द और सांविधानिक एकता के लिए हानिकारक है। महाराष्ट्र सरकार को चाहिए कि वह सभी हितधारकों से संवाद स्थापित कर, एक सर्वसम्मत और समावेशी नीति का निर्माण करे, जो क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण के साथ-साथ राष्ट्रीय संपर्क भाषाओं के सीखने को प्रोत्साहित करे।

हिंदी को भारत की विविध भाषाओं के साथ सहअस्तित्व में विकसित करने की आवश्यकता है, न कि प्रतिस्पर्धा और वर्चस्व के माध्यम से। जब तक भाषा नीति सहभागिता, सहमति और सहअस्तित्व के सिद्धांतों पर आधारित नहीं होगी, तब तक वह न केवल व्यावहारिक रूप से अप्रभावी सिद्ध होगी, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था और सामाजिक तानेबाने को भी क्षति पहुँचा सकती है। इसलिए हिंदी के संवर्धन का मार्ग बाध्यता से नहीं, संवाद और स्वैच्छिकता से होकर ही जाना चाहिए।

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