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आर्कटिक क्षेत्र में भारत की संभावनाओं का अन्वेषण

भारत का आर्कटिक क्षेत्र में बढ़ता रुझान केवल वैज्ञानिक अनुसंधान या पर्यावरणीय चिंता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक दीर्घकालिक भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक व्यापार मार्गों का पुनर्निर्धारण, और उभरती शक्ति संरचनाओं के संदर्भ में भारत को आर्कटिक में सक्रिय उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। यह केवल संसाधनों के शोषण का नहीं, बल्कि एक न्यायसंगत वैश्विक साझेदारी में सहभागिता का प्रश्न है।

आर्कटिक क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की तीव्रता का संवेदनशील संकेतक है, परंतु इसके साथ ही यह वैश्विक शक्ति संतुलन में निर्णायक भूमिका भी निभाता है। नासा के अनुसार, 1981–2010 की औसत तुलना में सितंबर माह में समुद्री बर्फ 12.2% प्रति दशक की दर से घट रही है। इससे उत्तरी समुद्री मार्ग (Northern Sea Route – NSR) जैसे वैकल्पिक व्यापार मार्ग खुल रहे हैं जो अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को जोड़ते हैं। यह मार्ग यूरोप और एशिया के बीच सबसे छोटा और व्यावसायिक रूप से अत्यंत लाभकारी मार्ग बनता जा रहा है।

भारत की समुद्री रणनीति अब पारंपरिक हिन्द महासागर केंद्रित दृष्टिकोण से आगे बढ़कर वैश्विक समुद्री मार्गों की ओर केंद्रित हो रही है। NSR पर भारत की उपस्थिति केवल व्यापार नहीं, बल्कि रणनीतिक स्थिति को भी परिभाषित करेगी। चूंकि मौजूदा व्यापारिक गलियारे, विशेषकर मलक्का जलडमरूमध्य, भौगोलिक एवं सैन्य संवेदनशीलता से युक्त हैं, NSR भारत को इन निर्भरताओं से मुक्त करने में सहायक हो सकता है। आर्कटिक काउंसिल में पर्यवेक्षक राष्ट्रों की संख्या इस तथ्य को पुष्ट करती है कि वैश्विक शक्तियाँ इस क्षेत्र में अवसर और जोखिम दोनों को गंभीरता से देख रही हैं।

भारत ने 1920 में स्वालबर्ड संधि पर हस्ताक्षर कर आर्कटिक से अपनी ऐतिहासिक संलग्नता को स्थापित किया था। ‘हिमाद्रि’ नामक स्थायी अनुसंधान केंद्र और ग्लोबल वार्मिंग के आकलन हेतु किए गए सहयोगात्मक अध्ययन इस बात का प्रमाण हैं कि भारत आर्कटिक को मात्र भू-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन और कृषि प्रणाली पर उसके प्रभावों की दृष्टि से भी देखता है। विशेष रूप से भारतीय मानसून पर आर्कटिक बर्फ के पिघलने के प्रभाव का अध्ययन राष्ट्रीय नीति-निर्धारण के लिए अत्यंत आवश्यक है।

भारत की 2022 की आर्कटिक नीति को अब संकल्पना से क्रियान्वयन की दिशा में गति दी जानी चाहिए। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य विज्ञान, जलवायु और सहयोग को सुदृढ़ करते हुए आर्कटिक में भारत की उपस्थिति को संस्थागत बनाना है। भारत को समुद्री जहाज निर्माण की तकनीकी क्षमता में वृद्धि करनी होगी, विशेष रूप से आइस-ब्रेकिंग और ध्रुवीय परिस्थितियों के अनुकूल जहाजों के निर्माण हेतु। इसी दिशा में 2025-26 के केंद्रीय बजट में $3 अरब का समुद्री विकास कोष शिपिंग मंत्रालय के लिए प्रस्तावित किया गया है।

यह मात्र अवसंरचना का प्रश्न नहीं है, अपितु बहुपक्षीय संवाद, प्रशिक्षण, तकनीकी क्षमता निर्माण और शोध सहयोग का भी मामला है। मई 2025 में नई दिल्ली में आयोजित होने वाला ‘आर्कटिक सर्कल इंडिया फोरम’ भारत के लिए रणनीतिक संवाद को भारत-केंद्रित बनाते हुए अपनी स्थिति को स्पष्ट करने का एक ऐतिहासिक अवसर है। यहां से नीति-निर्माण में हितधारकों की सक्रिय भागीदारी, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और संभवतः ‘पोलर एम्बेसडर’ की नियुक्ति जैसे कदम प्रारंभ किए जा सकते हैं।

जहाँ NSR पर माल ढुलाई 2010 में 41,000 टन थी, वहीं 2024 तक यह 37.9 मिलियन टन हो गई है। यह परिवर्तन आर्कटिक के भू-आर्थिक महत्व को पुष्ट करता है। परंतु साथ ही ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ के अनुसार 2024 में वैश्विक तापमान ने 1.5°C की पेरिस सीमा को पहली बार स्थायी रूप से पार किया है। यह आर्कटिक को अनियंत्रित दोहन से बचाने की चेतावनी है। भारत को व्यापारिक अवसरों और पर्यावरणीय उत्तरदायित्व के बीच संतुलन साधना होगा।

रूस भारत का आर्कटिक में प्राकृतिक सहयोगी हो सकता है। उसकी आर्कटिक तटीय उपस्थिति, तकनीकी दक्षता और पूर्ववत अनुभव भारत के लिए मूल्यवान हो सकते हैं। 2024 में भारत-रूस शिखर वार्ता के दौरान NSR पर एक द्विपक्षीय कार्य समूह की स्थापना की गई। चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारा इस संबंध को और प्रासंगिक बना देता है। यह भारत को सीधे आर्कटिक बंदरगाहों से जोड़ सकता है।

हालाँकि रूस के साथ गहराता संबंध चीन के ‘पोलर सिल्क रोड’ को अप्रत्यक्ष वैधता प्रदान कर सकता है, जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का आर्कटिक विस्तार है। इससे न केवल चीन मलक्का जलडमरूमध्य की निर्भरता से बच सकेगा, बल्कि NSR पर उसकी पकड़ भी मजबूत होगी। यदि भारत पश्चिमी गुट के साथ जाता है, तो वह उन संसाधनों से वंचित हो सकता है जो रूसी नियंत्रण में हैं। यह भारत के लिए सामरिक असमंजस की स्थिति है।

इस स्थिति का सबसे संतुलित समाधान यह हो सकता है कि भारत अमेरिका और रूस दोनों के साथ रणनीतिक संतुलन साधे। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे सहयोगी देश भी इसी दुविधा से जूझ रहे हैं और चीन-रूस गठजोड़ से उत्पन्न असंतुलन के प्रति सजग हैं। भारत को इन देशों के साथ त्रिपक्षीय सहयोग के माध्यम से आर्कटिक काउंसिल की संरचनात्मक असमानताओं को चुनौती देते हुए, एक समावेशी और न्यायसंगत वैश्विक आर्कटिक शासन का निर्माण करना चाहिए।

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