क्षेत्रीय उथल-पुथल के बीच कुर्दों की राज्य की मांग
कुर्दों की राष्ट्र-राज्य की आकांक्षा एक शताब्दी पुराना स्वप्न है, जो वर्तमान पश्चिम एशिया की भू-राजनीतिक उथल-पुथल में पुनः प्रासंगिक हो उठा है। इस समय क्षेत्रीय संरचना में जो बदलाव आ रहे हैं, वे इज़राइल की स्थापना के समय के बाद से सबसे गहन माने जा रहे हैं। ईरान की कमजोरी, सीरिया में शासन परिवर्तन, तेल की कीमतों में गिरावट और अमेरिकी भूमिका के पुनः उभार ने नए समीकरण गढ़े हैं, जिनमें कुर्दों के लिए अवसर और चुनौती दोनों समाहित हैं।
कुर्दों की स्थिति अद्वितीय है क्योंकि वे विश्व का सबसे बड़ा ऐसा जातीय समूह हैं जिसके पास अपना पृथक राष्ट्र नहीं है। लगभग 35 से 45 मिलियन की जनसंख्या वाले कुर्द तुर्की, इराक, ईरान और सीरिया में फैले हुए हैं। तुर्की में उनकी संख्या लगभग 17 मिलियन है, जो कुल जनसंख्या का लगभग 20% है। चारों देशों में उनकी स्थिति भिन्न है, परंतु समान है उनकी ऐतिहासिक उपेक्षा और सांस्कृतिक दमन की विरासत।
तुर्की में कुर्दों के विरुद्ध दशकों से चली आ रही दमनकारी नीति ने उनकी अस्मिता को नकारने का प्रयास किया। 1920 की सेव्रेस संधि में कुर्दों को स्वायत्तता का वादा किया गया था, परंतु अतातुर्क की नव-तुर्कीय राष्ट्रवाद की नीति ने उसे अस्वीकार कर दिया। इसके प्रतिउत्तर में 1978 में PKK का गठन हुआ, जिसने दशकों तक सशस्त्र विद्रोह चलाया। हालिया वर्षों में तुर्की सरकार ने पुनर्निर्माण योजनाएं तो घोषित की हैं, परंतु राजनीतिक समाधान अब भी लंबित है।
सीरिया में 2011 से आरंभ हुए गृहयुद्ध ने कुर्दों को एक अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। अमेरिकी समर्थन से गठित सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेस (SDF) ने आतंकवादी समूहों के विरुद्ध प्रभावी भूमिका निभाई और आज वे लगभग 40% भूभाग नियंत्रित करते हैं। परंतु तुर्की की सुरक्षा चिंताओं के चलते उनके विरुद्ध सीमाई कार्रवाई और मिलिशिया गठनों ने उनकी स्थिति को अस्थिर कर दिया है। अमेरिका की संभावित वापसी उनके प्रभाव को और सीमित कर सकती है।
इराक में 1991 के पश्चात कुर्दों की स्थिति तुलनात्मक रूप से सशक्त हुई है। अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद गठित कुर्दिस्तान क्षेत्रीय सरकार (KRG) को संविधान में स्वायत्तता दी गई। 2017 में कराए गए जनमत संग्रह में स्वतंत्रता के पक्ष में भारी मत मिले, परंतु इराकी सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया। यद्यपि KRG एक आर्थिक शक्ति बन चुकी है, परंतु तेल के निर्यात पर रोक और पड़ोसी देशों के सैन्य हमले इसकी स्थिरता को लगातार चुनौती दे रहे हैं।
ईरान में कुर्दों की स्थिति अपेक्षाकृत जटिल है। वे सांस्कृतिक रूप से फारसी समाज के निकट हैं और कभी-कभी शासक वर्ग का हिस्सा भी रहे हैं। परंतु अलगाववादी प्रवृत्तियों को लेकर शासन हमेशा सतर्क रहा है। हाल के वर्षों में आर्थिक हाशिएकरण और शिया-सुन्नी विभाजन के चलते उनमें असंतोष बढ़ा है। यदि ईरान पर बाह्य सैन्य दबाव बढ़ा, तो कुर्दों के बीच पृथकतावादी प्रवृत्तियाँ फिर उभर सकती हैं।
इन चारों देशों में केंद्र सरकारों की शक्तियों में क्षरण और क्षेत्रीय शून्यता ने कुर्द राष्ट्र निर्माण की संभावनाओं को पुनर्जीवित किया है। इराक और सीरिया में ‘प्रोटो-स्टेट’ की भांति कुर्द सत्ता संरचनाएं उभर चुकी हैं। परंतु इनमें वह वैचारिक एकता नहीं है जो यहूदी राष्ट्रवाद (Zionism) ने इज़राइल को दी थी। न ही कोई ऐसा समन्वयित अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक ढांचा है जो इन्हें एक समग्र रणनीति के तहत समर्थन दे सके।
पश्चिमी शक्तियों की रणनीति और क्षेत्रीय समीकरणों की दिशा इस प्रक्रिया को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकती है। यदि अमेरिका और उसके सहयोगी कुर्दों को एक प्रॉक्सी राज्य के रूप में स्थापित करने की योजना बनाते हैं, तो यह उनकी अस्थिर शक्ति संरचना को मजबूत कर सकती है। परंतु इससे क्षेत्रीय शक्तियों, विशेषकर तुर्की, ईरान और अरब देशों की प्रतिक्रिया तीव्र हो सकती है, जो इस प्रकार के किसी परिवर्तन को ‘भू-राजनीतिक संक्रमण’ के रूप में देखेंगे।
कुर्दों के आंतरिक विभाजन भी उनकी आकांक्षा में बड़ी बाधा हैं। उनके बीच न केवल राष्ट्रीय सीमाओं के आधार पर विभाजन है, बल्कि जातीय, सांस्कृतिक और नेतृत्व स्तर पर भी एकता का अभाव है। PKK, KDP और PYD जैसी विभिन्न कुर्द पार्टियों की वैचारिक भिन्नता और आपसी अविश्वास उनके आंदोलन को कमजोर करता है। बिना एकीकृत नेतृत्व के वे किसी स्थायी राष्ट्र की नींव नहीं रख सकते।
वर्तमान में, कुर्दों की स्थिति एक त्रिकोणीय जाल में फंसी हुई है: पश्चिमी समर्थन पर निर्भरता, क्षेत्रीय विरोध और आंतरिक विभाजन। ऐतिहासिक रूप से वे बार-बार उपेक्षित हुए हैं क्योंकि बड़े वैश्विक और क्षेत्रीय मुद्दों ने उनकी आकांक्षाओं को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। आज की अस्थिर व्यवस्था उनके लिए संभावनाओं का द्वार खोलती है, परंतु उसका लाभ उठाने हेतु उन्हें संगठित, रणनीतिक और वैचारिक रूप से तैयार होना होगा।
अंततः, कुर्दों का भाग्य उनके दो कहावतों में संक्षेपित किया जा सकता है—“किसी और के हाथ से साँप पकड़ना आसान है” और “कुर्दों का कोई मित्र नहीं, सिवाय पहाड़ों के।” यदि वे इन सीमाओं को पार कर सके, तभी उनका राष्ट्र बनने का स्वप्न साकार हो सकता है; अन्यथा यह इतिहास के गर्भ में एक और असफल आंदोलन बनकर रह जाएगा।