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एक ऐसा कदम जो मतदान के अधिकार को खतरे में डालता है

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा आधार संख्या को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने की पहल ने लोकतांत्रिक अधिकारों की मूलभूत अवधारणाओं को संकट में डाल दिया है। यह कदम, जिसे मतदाता सूची की शुद्धता बढ़ाने और फर्जी मतदाताओं को हटाने के उद्देश्य से उचित ठहराया गया है, वास्तव में नागरिकों के मतदान के अधिकार और निजता की स्वतंत्रता पर गहरी चोट करता है। इसके माध्यम से एक तकनीकी समाधान प्रस्तुत कर, संवैधानिक ढांचे की सीमाओं का अतिक्रमण किया जा रहा है।

निर्वाचन आयोग यह दावा करता है कि आधार-मतदाता आईडी लिंकिंग स्वैच्छिक है, परंतु वर्तमान फॉर्म 6बी में इसका कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं है। नागरिकों को या तो आधार संख्या देनी होती है या यह घोषित करना होता है कि उनके पास आधार नहीं है, जिससे असहमति रखने वाले नागरिकों पर भी दबाव बनाया जाता है। यह प्रक्रिया वस्तुतः बाध्यकारी बन चुकी है, जो स्वैच्छिकता की परिभाषा के विरुद्ध है और नागरिकों के चुनावी अधिकारों को सीमित करती है।

आधार डेटा के संग्रह और उपयोग की विधि स्वयं ही गंभीर प्रश्नों को जन्म देती है। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और अन्य प्रशासनिक माध्यमों से एकत्रित डेटा का पुनर्प्रयोग, जो आधार अधिनियम की सीमाओं से बाहर जाता है, न केवल कानूनी बल्कि नैतिक स्तर पर भी आपत्तिजनक है। इससे सरकार द्वारा नागरिकों की जानकारी पर नियंत्रण की संभावना बढ़ जाती है, जो लोकतंत्र के मूल्यों के विरुद्ध है।

ईसीआई का नवीन प्रस्ताव नागरिकों को यह साबित करने के लिए बाध्य करता है कि वे आधार क्यों नहीं देना चाहते और इसके लिए उन्हें भौतिक रूप से निर्वाचन अधिकारी के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है। यह प्रक्रिया विशेष रूप से वृद्धजन, दिव्यांग, प्रवासी श्रमिकों और दूरदराज क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों के लिए अनुचित बाधा उत्पन्न करती है। इससे समान मताधिकार की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन होता है।

यदि नागरिकों की गैर-आधार प्रस्तुति को खारिज कर दिया जाता है, तो उसके विरुद्ध कोई स्पष्ट, सुगम और समयबद्ध अपीली तंत्र भी नहीं है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित मानकों के प्रतिकूल है, जो प्रत्येक मतदाता को न्यायिक सुनवाई का अवसर प्रदान करने की गारंटी देता है। इससे मतदाता विश्वास में कमी और संस्थागत पारदर्शिता में गिरावट आती है।

आधार को मतदाता पहचान के रूप में प्रस्तुत करना स्वयं में भ्रामक है, क्योंकि आधार केवल निवास प्रमाण है, नागरिकता प्रमाण नहीं। आधार अधिनियम, 2016 की धारा 9 स्पष्ट करती है कि आधार को नागरिकता प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में इसे मतदाता सूची के प्रमाणीकरण के लिए उपयोग में लाना असंवैधानिक और भ्रामक नीति है, जो नागरिकता आधारित निर्वाचन प्रक्रिया को कमजोर करती है।

इस नीति का इतिहास भी इससे उत्पन्न खतरों की पुष्टि करता है। 2015 में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण कार्यक्रम के तहत 55 लाख मतदाता आधार से मिलान न हो पाने के कारण सूची से हटा दिए गए थे। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि आधार डेटाबेस की तकनीकी त्रुटियाँ बड़े पैमाने पर मतदान अधिकारों का दमन कर सकती हैं, जो लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है।

इस योजना के माध्यम से राज्य द्वारा मतदाता निगरानी और प्रोफाइलिंग की आशंका भी उत्पन्न होती है। डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 में सरकारी संस्थाओं को कई छूट प्राप्त हैं, जिससे यह संभव होता है कि राजनीतिक दल मतदाता जानकारी का विश्लेषण कर, माइक्रो-टार्गेटिंग और वोट बैंक प्रबंधन के लिए डेटा का दुरुपयोग कर सकें। यह सत्ता की केंद्रीकरण प्रवृत्ति को और प्रबल करता है।

यह भी चिंताजनक है कि इस कार्य में एक संवैधानिक निकाय (ईसीआई) एक अधिनियमित संस्था (यूआईडीएआई) पर निर्भर हो रही है, जो कि कार्यपालिका के नियंत्रण में है। इससे शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होता है और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया पर खतरा मंडराता है। निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता, जो लोकतंत्र का आधार है, संदेह के घेरे में आ जाती है।

निर्वाचन प्रणाली में सुधार के लिए आधार पर निर्भर रहने के बजाय, पारंपरिक तरीकों जैसे कि बीएलओ द्वारा घर-घर सत्यापन, स्वतंत्र सामाजिक ऑडिट और प्रभावी शिकायत निवारण प्रणाली को सुदृढ़ करना अधिक न्यायसंगत और संविधानसम्मत विकल्प है। आधार से जुड़ी प्रणाली का अनुभव यह दर्शाता है कि यह लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए अनुकूल नहीं है और इसे तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए।

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