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जहां टैरिफ अर्थशास्त्र पर हावी हो जाते हैं

अमेरिका द्वारा हाल ही में घोषित पारस्परिक शुल्कों (Reciprocal Tariffs) ने वैश्विक व्यापार प्रणाली को अस्थिर कर दिया है, जिससे आर्थिक अनिश्चितता का एक नया दौर प्रारंभ हुआ है। यह निर्णय केवल आर्थिक कारकों से प्रेरित नहीं, बल्कि रणनीतिक और राजनीतिक उद्देश्यों से भी संचालित प्रतीत होता है। इससे विश्व व्यापार संगठन की बहुपक्षीय प्रणाली कमजोर हो रही है और नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था पर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसका गंभीर प्रभाव भारत सहित विकासशील देशों की नीतियों पर पड़ेगा।

क्रूड ऑयल की कीमतों में लगभग 14% की गिरावट और वैश्विक शेयर बाजारों में अस्थिरता इस तथ्य को रेखांकित करती है कि व्यापारिक तनाव केवल शुल्कों तक सीमित नहीं, बल्कि व्यापक आर्थिक परिदृश्य को प्रभावित कर रहे हैं। यदि अमेरिका और चीन के मध्य व्यापार युद्ध के समानांतर अन्य देशों के साथ भी यही रवैया अपनाया जाता है, तो यह वैश्विक मांग में गिरावट और मुद्रास्फीति में वृद्धि जैसी दीर्घकालिक चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकता है। इससे भारत के निर्यात-संचालित क्षेत्रों को विशेष झटका लग सकता है।

पारस्परिक शुल्कों की नीति मूलतः संरक्षणवाद की पुनरावृत्ति है, जिसमें एक देश दूसरे के समान कार्यों के उत्तर में समान शुल्क लगाता है। यह नीति अल्पकालिक रूप से स्थानीय उद्योगों को सुरक्षा प्रदान कर सकती है, परंतु दीर्घकाल में यह मूल्यवृद्धि, आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान और व्यापार प्रवाह में बाधा उत्पन्न करती है। वैश्विक प्रतिस्पर्धा की भावना को यह बाधित करती है और अंततः उपभोक्ताओं के हितों को हानि पहुँचाती है, विशेषकर निम्न-मध्यम आय वाले देशों में।

दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया पर अमेरिका के इन शुल्कों का प्रभाव सर्वाधिक गहरा पड़ा है। वियतनाम, कंबोडिया, थाईलैंड, मलेशिया जैसे देश जिनकी अर्थव्यवस्था अमेरिका को निर्यात पर निर्भर है, अब भारी राजस्व हानि की स्थिति में हैं। कंबोडिया का वस्त्र उद्योग, जो 7.5 लाख श्रमिकों को रोजगार देता है, विशेष रूप से संकटग्रस्त है। इन देशों की प्रतिकारक क्षमता सीमित है, जिससे अमेरिका के साथ असमान व्यापारिक वार्ताओं में उनकी स्थिति कमजोर हो जाती है।

शुल्कों की गणना का तरीका भी विवादास्पद है। अमेरिका ने जो फॉर्मूला अपनाया है—व्यापार घाटे को निर्यात से विभाजित कर दो से भाग—वह न केवल आर्थिक रूप से दोषपूर्ण है, बल्कि अवास्तविक भी है। यह सेवाओं को व्यापार घाटे में नहीं गिनता, जिससे उन देशों को अनुचित लाभ होता है जो वित्तीय एवं तकनीकी सेवाएँ अधिक निर्यात करते हैं। इससे भारत जैसे विनिर्माण-आधारित निर्यातक देशों को अन्यायपूर्ण रूप से अधिक शुल्क भुगतना पड़ता है।

भारत के लिए यह परिस्थिति केवल संकट नहीं, बल्कि रणनीतिक पुनर्विचार का अवसर भी हो सकती है। यदि अनुमानित 7.76 बिलियन डॉलर के अमेरिकी निर्यात में कमी होती है, तो यह भारत की कुल वैश्विक निर्यात संरचना को पुनर्संतुलित करने का उपयुक्त समय हो सकता है। भारत को बहुपक्षीय व्यापार समझौतों से परे जाकर द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय साझेदारियों को सुदृढ़ करना होगा, जिससे अमेरिका पर निर्भरता घटे और विविधीकरण सुनिश्चित हो।

इस दिशा में भारत को चार स्तरों पर पहल करनी होगी: पहला, अमेरिका के साथ समन्वित एवं दीर्घकालिक व्यापार वार्ताओं का संचालन; दूसरा, यूरोपीय संघ, यू.के., कनाडा जैसे विकसित देशों के साथ समझौतों को शीघ्र अंतिम रूप देना; तीसरा, रूस, जापान, कोरिया, ASEAN और UAE के साथ क्षेत्रीय साझेदारी का गहनिकरण; और चौथा, चीन के साथ रणनीतिक सन्तुलन साधते हुए व्यापार सहयोग की सीमित पुनर्स्थापना। यह बहुस्तरीय दृष्टिकोण भारत को लचीलापन प्रदान करेगा।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत इस संकट को अवसर में बदल सकता है, जैसा कि iPhone के निर्यात में 54% की वृद्धि से स्पष्ट होता है। परंतु यह आंशिक सत्य है, क्योंकि कुल माल निर्यात में वृद्धि शून्य रही है। इसका अर्थ है कि भारत को निर्यात रणनीति में केवल चुनिंदा सफलताओं पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि व्यापक ढाँचागत सुधारों की आवश्यकता है। शुल्कों का तर्कसंगतरण, सरल जीएसटी, व्यापार प्रक्रियाओं का सरलीकरण और गुणवत्ता मानकों का निष्पक्ष क्रियान्वयन आवश्यक होगा।

भारत यदि इस चुनौती के उत्तर में केवल आत्मनिर्भरता आधारित सुरक्षात्मक उपाय अपनाता है, तो वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से अलग-थलग पड़ सकता है। इसके विपरीत, उसे वैश्विक आर्थिक पुनर्संरचना में अवसर खोजने होंगे और अपनी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमताओं को विश्वस्तरीय मानकों तक लाना होगा। इसके लिए नीति निर्माताओं को पारदर्शिता, पूर्वानुमेयता और अंतरराष्ट्रीय व्यापार मानदंडों के अनुरूप सोचने की आवश्यकता है।

अतः अमेरिका की शुल्क नीति भारत के लिए केवल व्यापारिक संकट नहीं, बल्कि आर्थिक पुनर्रचना की एक ऐतिहासिक चुनौती है। इस संकट का उत्तर केवल प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि रणनीतिक परिकल्पना होनी चाहिए—ऐसी परिकल्पना जो भारत को एक आत्मनिर्भर, विविधीकृत और वैश्विक व्यापार तंत्र में निर्णायक शक्ति के रूप में उभार सके। केवल यही दृष्टिकोण भारत को इस ‘शुल्क के युग’ में टिकाऊ और अग्रणी बना सकता है।

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