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संवैधानिक प्रणाली में विवेक की बहाली

भारत के संघीय ढांचे की स्थिरता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की प्रभावशीलता का प्रमुख आधार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मध्य स्पष्ट संतुलन और संविधानिक मर्यादाओं का पालन है। 8 अप्रैल 2025 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए State of Tamil Nadu vs. Governor of Tamil Nadu निर्णय ने इस संवैधानिक संतुलन को नए सिरे से परिभाषित किया है। यह निर्णय राज्यपालों की भूमिका, विधायी प्रक्रिया में उनकी संवैधानिक सीमाएं, तथा न्यायिक समीक्षा की सीमा को स्पष्ट करने के कारण ऐतिहासिक बन गया है।

तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा वर्षों तक विधायी सदन द्वारा पारित 10 विधेयकों को लंबित रखना और बाद में उन्हें राष्ट्रपति को भेजना, एक गंभीर संवैधानिक संकट की ओर संकेत करता है। यह निर्णय न केवल राज्यपाल के इस कृत्य को असंवैधानिक घोषित करता है, बल्कि राष्ट्रपति द्वारा दी गई अस्वीकृति को भी रद्द करता है। न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 142 के अंतर्गत इन विधेयकों को स्वीकृत मान लेना, भारतीय संवैधानिक इतिहास में अभूतपूर्व है और एक असाधारण परिस्थिति में न्यायिक समाधान का आदर्श उदाहरण है।

अनुच्छेद 200 में राज्यपाल को दिए गए अधिकारों की व्याख्या करते हुए न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि विधेयक को अस्वीकृत करना अंतिम निर्णय नहीं होता। यदि राज्यपाल किसी विधेयक को स्वीकृति नहीं देते, तो उन्हें उसे पुनर्विचार के लिए विधानमंडल को लौटाना अनिवार्य है। यदि पुनः वही विधेयक लौटता है, तो राज्यपाल उस पर स्वीकृति देने के लिए बाध्य होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि राज्यपाल को कोई निहित ‘वेटो’ अधिकार नहीं है।

यह निर्णय उन राज्यों के लिए भी दृष्टांत बनता है जहाँ राज्यपालों ने विधेयकों पर अनावश्यक विलंब किया है, जैसे केरल, पंजाब और तेलंगाना। न्यायालय का यह रुख संघीय प्रणाली में निर्वाचित विधायिकाओं की संप्रभुता को पुनर्स्थापित करता है और मनमाने गवर्नर राज की प्रवृत्ति को रोकने में सहायक सिद्ध होता है। न्यायालय ने विधेयक की स्वीकृति में अनिश्चितकालीन विलंब को ‘जेब वीटो’ कहा और इसे असंवैधानिक ठहराया।

निर्णय में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति को विधेयक पर निर्णय लेने की समय-सीमा दी गई है: न्यूनतम एक माह और अधिकतम तीन माह। भले ही संविधान में ऐसी समय-सीमा का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, न्यायालय ने इसे ‘वाजिब समय’ की अवधारणा और न्यायिक व्याख्या के आधार पर स्थापित किया। यह निर्णय विधायिका की कार्यकुशलता सुनिश्चित करने की दिशा में एक निर्णायक कदम है।

अनुच्छेद 200 और 201 के अंतर्गत राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया में मंत्रिपरिषद की सलाह की अनिवार्यता को भी इस निर्णय में पुष्ट किया गया है। न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल अपने विवेक से निर्णय नहीं ले सकते, बल्कि उन्हें निर्वाचित सरकार की सलाह के अनुरूप कार्य करना होता है। इससे कार्यपालिका की जवाबदेही की परिकल्पना को बल मिलता है और गैर-लोकतांत्रिक हस्तक्षेप पर रोक लगती है।

हालाँकि इस निर्णय में एक बिंदु पर स्पष्टता की कमी देखी जा सकती है—कि मंत्रिपरिषद राज्यपाल को किसी विधेयक को अस्वीकृत करने और पुनर्विचार हेतु भेजने की सलाह कैसे दे सकती है जब उसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त है और संशोधन की कोई संभावना नहीं है। इस विरोधाभास को सुलझाने के लिए भविष्य में संविधानिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता हो सकती है।

इस निर्णय में तीसरा और सबसे निर्णायक पहलू यह है कि न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णयों को भी न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत माना है। यह इस विचार को पुष्ट करता है कि संविधान के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत किया गया कोई भी निर्णय न्यायिक समीक्षा से परे नहीं हो सकता। इससे विधायिका और कार्यपालिका की शक्ति पर संतुलन स्थापित होता है।

न्यायालय का यह निर्णय कुछ आलोचनाओं का भी केंद्र बना है, विशेषतः केरल के राज्यपाल द्वारा इसे ‘न्यायिक अतिक्रमण’ कहे जाने के कारण। साथ ही कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने यह तर्क दिया है कि अनुच्छेद 145(3) के तहत यह मामला संविधान पीठ को सौंपा जाना चाहिए था। किन्तु न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह केवल मौजूदा प्रावधानों की व्याख्या है, कोई नया कानून नहीं बनाया गया है।

यह निर्णय भारतीय संविधान की भावना और संघीय व्यवस्था की रक्षा हेतु एक आवश्यक हस्तक्षेप है। यह निर्वाचित विधायिका के कार्यों में अकारण बाधा डालने वाली प्रवृत्तियों को रोकने में मील का पत्थर साबित हो सकता है। दशकों पूर्व डाक विधेयक पर राष्ट्रपति द्वारा वर्षों तक निर्णय न लेने की घटना ने जो शून्यता निर्मित की थी, वह अब इस निर्णय द्वारा भरी जा रही है।

इस निर्णय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसने संविधान की मूल भावना की पुनर्स्थापना की है और निर्वाचित प्रतिनिधित्व के महत्व को न्यायिक संरक्षण प्रदान किया है। आने वाले समय में इस निर्णय को आधार बनाकर संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में आवश्यक संशोधन की दिशा में पहल हो सकती है, जिससे विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता और समयबद्धता सुनिश्चित हो सके।

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